ख़ामोशियों में इस क़दर उलझे हुए हैं हम!
कि महफिल में भी तन्हा ही बैठे हुए हैं हम!!
अफ़सोस हमें अपनी ख़मोशियों का नहीं है!
शिक़वा तुम्हारी ख़ुदग़र्ज़ मुहब्बत का है सनम!!
चाहा था क्यों हमें, जब हमारी सादग़ी ना थी पसंद!
तुमसे ज़्यादा तो कहीं, ख़ामोशी को हमसे मुहब्बत है सनम!!
ये सवाल हमें जीने ही नहीं देता है!
क्यों हमारे होकर भी तुम, हमारे ना हुए सनम!!!
कि महफिल में भी तन्हा ही बैठे हुए हैं हम!!
अफ़सोस हमें अपनी ख़मोशियों का नहीं है!
शिक़वा तुम्हारी ख़ुदग़र्ज़ मुहब्बत का है सनम!!
चाहा था क्यों हमें, जब हमारी सादग़ी ना थी पसंद!
तुमसे ज़्यादा तो कहीं, ख़ामोशी को हमसे मुहब्बत है सनम!!
ये सवाल हमें जीने ही नहीं देता है!
क्यों हमारे होकर भी तुम, हमारे ना हुए सनम!!!
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