समझ में आ गया है अब शायद, इस दुनिया का चलन मुझको*
यहाँ दिखावे की क़ीमत ज़्यादा, और असल की कम होती है**
मुश्किल बहुत है माना, बनावट के बग़ैर जीने में यहाँ*
फिर भी असल में जो जिया, वही बहादुर और ऐहतराम के लायक है यहाँ**
कर लो तस्लीम अपने गुनाहों को, कि तौबा का दरवाज़ा अभी खुला है मगर*
आँख बंद होते ही, मौका मगर ना मिल पायेगा तुझे**
फ़रेब तुम कर लो कितने भी, मगर उसे पता चल जायेगा*
तेरे चेहरे का असल, एक दिन सबके सामने आ जायेगा**
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